नीलकंठ के रूप में संसार को अभय दिया भगवान ने ...



  भारत के प्रसिद्ध धार्मिक स्थल हरिद्वार में प्रतिवर्ष श्रावण मास में शिव भक्तों का एक अद्वितीय मेला या कहे शिव कुंभ लगता है। शिवभक्त हर की पैड़ी से गंगा जल लाकर नीलकंठ महादेव ,त्रिपुरा महादेव पर शिवलिंग पर शिवरात्रि के दिन गंगा जल चढ़ाते हैं। नीलकंठ महादेव पर श्रावण मास के प्रत्येक दिन हजारों की संख्या में शिवभक्त  जल चढ़ाते हैं ।

 श्री नीलकंठ महादेव का मंदिर मणिकूट  पर्वत जिसकी ऊंचाई गंगा के प्रवाह से 4500 है पर स्थित है ।भगवान शिव का नीलकंठ नाम समुद्र मंथन से उत्पन्न कालकूट नामक विष की ज्वालाओ से दग्धायेमान संसार के समस्त चराचर प्राणियों के  दुखों को दूर करने के लिए किए गए विषपान के कारण ही पड़ा। संसार के अनेकों प्रकार के मानसिक एवं शारीरिक दुखों से परेशान जो मनुष्य भगवान नीलकंठ की शरण में जाता है वह ठीक वैसे ही जिस प्रकार कालकूट नामक हलाहल विष की भयंकर ज्वालाओ के संताप से देवता ,असुर आदि मुक्त थे वैसे ही अपने दुखों से मुक्त हो जाता है ।

श्रीमद् भागवत कथा के अनुसार चाकुक्ष नामक छटे मन्वन्तर में देवाधिदेव भगवान शिव नीलकंठ हुए थे ।इस युग में एक बार देवराज इन्द्र के अपराध के कारण कुपित होकर महर्षि दुर्वासा ने समस्त देवताओं को शक्ति एवं श्रीहीन होने का श्राप दे दिया था। इस श्राप के कारण देवता शक्ति एवं श्रीहीन  होकर असुरों से पराजित एवं मृतप्राय हो गए थे। उनकी दशा को देख ब्रह्मा जी उनको लेकर भगवान श्री सदाशिव की शरण में भी गए ।

 शरणागत देवताओं पर प्रसन्न होकर श्री प्रभु ने उनको असुरों के साथ संधि करके उनके सहयोग से अमृत तथा अन्य  अलौकिक रत्नों की प्राप्ति करने के लिए समुंद्र मंथन करने का आदेश दिया ।भगवान श्री सदाशिव के आदेश के अनुसार देवताओं ने असुरों के साथ संधि करके मंदराचल पर्वत को मथनी और वासुकि नाग को नेति बनाकर समुद्र का मंथन आरंभ कर दिया। उस समय भगवान विष्णु ने कश्यप अवतार धारण करके मंदराचल पर्वत को अपनी पीठ पर थाम लिया था।बड़े परिश्रम से देवताओं और असुर अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन कर रहे थे ।परंतु समंदर में से सर्वप्रथम अमृत के स्थान पर महान भयंकर हलाहल कालकूट विष उत्पन्न हुआ ।उसकी असहज एवम भयंकर लपटों से जल्दी-जल्दी समस्त प्राणी व्याकुल हो गई ।उसकी असहज एवं भयंकर लपटों से जलचरादि समस्त प्राणी व्याकुल हो गए।उसकी लपटे अत्यन्त तेज़ गति से दसों दिशाओं में व्याप्त होने लगी। इस असहनीय भयंकर ज्वालाओ से भयभीत एवं अपने को असुरक्षित महसूस कर पुज्य अतिथि व समस्त प्राणी कैलाश में  में भगवान श्री सदाशिव की शरण में पहुंचे और अपनी इस आपदा से रक्षा की प्रार्थना की ।उनकी दीन भावना से की गई प्रार्थना सुनकर भगवान शिव ने माता सती से कहा कि में इन समस्त प्राणियों को अभय देता हूं तथा तब कृपालु भूतभावन महादेव जी ने तीनों लोकों में व्याप्त उस हलाहल विष को अपनी हथेली में समेट कर पी लिया ।उसमें भी उन्होंने अपना प्रभाव दिखाते हुए हलाहल कालकूट विष को अपने कंठ में ही रख लिया ।जो उनके लिए भूषण बन गया ।इसके प्रभाव से उनका कंठ नीलवर्ण हो गया और उस दिन से भगवान सदाशिव नीलकंठ कहे जाने लगे। 

 श्रीमद् भागवत कथा के अनुसार सृष्टि चक्र के श्वेत बार कल्प जिसमें भगवान सदाशिव ने हर बार समुद्र मंथन से प्राप्त हलाहल कालकूट विष को ग्रहण कर समस्त प्राणी समुदाय की रक्षा की थी । इस विषपान को करने के बाद भगवान सदाशिव उस विष की उग्रता से व्याकुल होने लगे । व्याकुलता के वशीभूत होकर भगवान माता सती जी व समस्त परिजनों को छोड़़ कर चुपचाप एकांत स्थान खोजने के लिए चल पड़े।यहां पर मनीकूट , विष्णुकूट एवं बृहमाकूट खडा के मूल में स्थित मधुमति*मणिभद्र*, पंकजा *चंद्रप्रभा* नदियों के संगम स्थान को रमणीक मानकर एवं यहां की शीतलता देकर भगवान नीलकंठ यहीं पर वटवृक्ष के मूल में समाधि लगा कर बैठ गए। कैलाश में किसी को भी नहीं पता था कि भगवान कहां चले गए हैं। ब्रह्मा जी, विष्णु जी आदि देवता एवं समस्त शिव परिवार उनको खोजने लग गए ।खोजते-खोजते 40000 वर्ष बीत जाने पर माता सती को पता लगा कि भगवान श्री नीलकंठ उक्त स्थान पर समाधिष्थ होकर कालकुट विष की कुष्णता को शांत कर रहे हैं। भगवान शिव के समाधि स्थल का पता लग जाने पर माता सती श्री कैलाश जी से  यहां आ गई। लेकिन उनके आने पर भी श्री भगवान शंकर की समाधि नहीं खुली। तत्पश्चात माता सती ने भी भगवान नीलकंठ के समाधि स्थल से अग्नि कोण में स्थित बृहमाकूट नामक पर्वत के शिखर में पंकजा नदी के उद्गम से ऊपर बैठकर तपस्या की ।धीरे-धीरे सभी देवधिगण भी यहा आ गए और भगवान श्री नीलकंठ की समाधि खुलने की प्रतीक्षा करने लगे।जिस स्थान पर माता सती ने तपस्या की वह स्थान श्री भुवनेश्वर के नाम से विख्यात सिद्ध पीठ हो गया। ब्रह्मा जी के निवास के कारण वह पृवत  बृहमकूट तथा भगवान विष्णु जहां बैठे थे वह शिखर विष्णुकुट कहलाया। माता सती को 20000 वर्ष तपस्या करने के उपरांत 60000 वर्षों के बाद भगवान नीलकंठ जी की समाधि खुली ।समाधि खुलने पर भगवान भगवती माता सती  सहित समस्त देवताओं ने भगवान श्री नीलकंठ के दर्शन कर उनको प्रसन्न करके कैलाश चलने का अनुरोध किया ।जिसे प्रभु ने स्वीकार कर लिया। 60000 वर्ष तक शीतल स्थान में समाधिस्थ होने से भगवान की उष्णता समाप्त हो गई और वह प्रसन्नचित्त हो गए। 

मणिकूट पर्वत से भगवान नीलकंठ के अपने  नित्य निवास श्रीकैलाश में आने जाने से पूर्व जगत माता सती जी तथा समस्त देवाधिगण  की प्रार्थना से प्रसन्न होकर जगत का कल्याण करने के लिए भगवान नीलकंठ जी जिस वृक्ष के मूल में समाधि लगा कर बैठे थे ,उसी स्थान पर स्वमंभू लिंग के रूप में भगवान प्रकट हुए। स्वयंभू शिवलिंग  का सर्वप्रथम पूजन माता सती जी ने किया ।ब्रह्मा जी ,विष्णु जी तथा देवी देवताओं ने भी आकर शिव पूजन किया ।समय-समय पर अनेक ऋषि मुनियों ने आकर भगवान की कृपा से अपनी इच्छा सिद्धियों को प्राप्त करने के लिए यहां पर भगवान शिव का पूजन किया ।आज श्री नीलकंठ जी की ख्याति पुरे भारतवर्ष में फैली हुई है।


लेखक कमल मित्तल मुजफ्फरनगर में वरिष्ठ पत्रकार है, वर्तमान में कई सामाजिक संगठनों से जुड़े है।

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