स्कूली शिक्षा और राष्ट्रीय शिक्षा नीति- 2020

 



मुरलीधर गुर्जर

राष्ट्रीय षिक्षा निति आयोग ने अपनी सिफारिष केन्द्र सरकार को देकर, अब गेंद केन्द्र सरकार के पाले में डाल दी। कितनी सिफारिषें धरातल पर आती है और कितनी  नहीं, यह कार्य हमारी सरकारों का है। षिक्षा नितियां पहले भी बनती रही है। हमारे देष के नागरिक किस तरह की समझ, कौषल और मुल्यों को आत्मसात् करते हुए अपने जीवन का सफल निर्वहन करे इसकी अपेक्षा हर षिक्षा निति में रखी जाती है। हमारे देष की षिक्षा की दिषा को लेकर पहला  दस्तावेज 1968 में कोठारी आयोग ने देष के सामने रखा । इस में भी वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास की बात की गयी थी। इसके बाद ही भारत में षिक्षा का तंत्र व्यवस्थित और मजबूत हो पाया है। षिक्षानिति की छाया  में ही राष्ट्रीय पाठ्यचर्या का निर्माण किया जाता है। राष्ट्रीय षिक्षा निति 1986 में  निष्चित तौर पर हमारे षिक्षा तंत्र में पहले से अधिक अपेक्षाएं रखी गयी होंगी। क्योंकि समय के साथ- साथ हमारा समाज और जटिल होता जा रहा है साथ ही बाल मनोविज्ञान एंव सीखने -सीखाने की प्रक्रिया पर और समझ बनती जा रही होती है। अतः एक अच्छी षिक्षा निति उसे ही कह पांएगे, जिसमे बाल मनोविज्ञान, सीखना क्या है? कैसे सीखा जाता है? किस उम्र में किस तरह की विषय वस्तु पढ़ने को दी जाए? ज्ञान निमार्ण की प्रक्रिया आरम्भ में कौनसी भाषा में हो ?आदि आदि आयामों का समावेष करते हुए तैयार की जाए। सन् 1992 में 1986 की राष्ट्रीय षिक्षा निति की समीक्षा की गयी और कुछ सुधार भी किए गये। जिसमें बस्ते के बोझ रहित षिक्षा की सिफारिष भी की गयी। सन् 2009 में षिक्षा का अधिकार कानून आया और षिक्षा तंत्र को और मजबूत करने का प्रयास किया गया । 14 वर्ष तक के हर बच्चे को   आठवीं तक की  षिक्षा  का अधिकार दिया गया । आठवी तक  25 प्रतिषत गरीब बच्चों की पढ़ाई मंहगे निजि विद्यालयों में निःषुल्क करने की  बात की गयी। 

नई षिक्षा निति 2020 लगभग 28 वर्ष बाद आयी है और इन 28 वर्षों में दुनिया में बहुत बदलाव आ चुका है। अतः यही कारण है कि नई षिक्षा निति में अपेक्षा की गयी है कि 2040 तक भारत में एक ऐसी षिक्षा प्रणाली का विकास होना चाहिए जो दुनिया में किसी से पीछे न हो। एक ऐसी षिक्षण व्यवस्था जिसके माध्यम से सभी वर्गों सामाजिक आर्थिक व सांस्कृतिक रूप  से पिछड़े हर बालक को भी अच्छी एवं गुणवत्तापूर्ण षिक्षा मिल पाएं। षिक्षा का उद्देष्य अच्छे इंसानों का विकास करना है। ऐसे इंसान जो तर्क कर सके, सृजन कर सके, जिसमें नैतिक मूल्यों का विकास हो। षिक्षा का उद्देष्य  ऐसे इंसान रूपी उत्पाद तेैयार करना है जो इस बहुलतावादी समाज एवं राष्ट्र निर्माण में बेहतर योगदान दे सके। इसके लिए षिक्षा तंत्र भी इसी तरह का बनाना व विकसित करना होगा जो यह सब करने में सक्षम हो। भारतीय संस्कृति और दर्षन का विष्व में बड़ा महत्व एवं योगदान रहा है अतः आने वाले दिनों में इस दर्षन की मदद लेते हुए ऐसी षिक्षा प्रणाली विकसित की जाए जो भारत को पुनः अपना खोया हुआ गौरव लोटा सके। हमारी षिक्षा आने वाली पीढ़ी में हमारे देष राष्ट्र एवं संविधान के प्रति निष्ठा उत्पन्न करे। साथ ही वैष्विक कल्याण के प्रति भी प्रतिबद्व हो ताकि वह वैष्विक नागरिक बन सके। हर बच्चे की विष्ष्टि क्षमताओं को पहचान कर उसके विकास के प्रयास, अवधारणात्मक समझ, रचनात्मक एवं तार्किक चिंतन, बहुभाषिकता पर जोर, जीवन कौषलों का विकास आदि आदि तरह से हर बच्चे में उन क्षमताओं ,कौषलों एवं समझ का विकास करने को सुनिष्चित करने का प्रयास किया गया। एक ऐसे मानव की कल्पना की गयी है जो उम्र भर सीखने की इच्छा शक्ति रखने वाला हो और सीखने की प्रक्रिया से जुड़ा रहने वाला हो। ज्ञान के सभी क्षैत्रों में आपसी संबंध देख पाएं। एक ऐसा इंसान हो जिसमें कला, संगीत, योग जैसी कला से परिपूर्ण एवं सीखे हुए का उपयोग अपने जीवन मे ंकर सके। इसके लिए इस तरह के षिक्षकों की अपेक्षा की गयी है जो बच्चों में यह सब ला सके। 

अभी तक हमारे विधालयों में 5 वर्ष के बच्चों को प्रवेष दिया जाता था । इससे पहले बालक अपने घर पर रहता । माना जाता था कि 5 वर्ष से पूर्व बच्चा औपचारिक ढ़ांचे में रहेगा तो उसके विकास के लिए बाधक होगा। अब इन विचारों में बदलाव आया है और माना गया है कि अगर 3 वर्ष के बच्चे को इस औपचारिक  तंत्र के साथ जोड़कर वे सभी प्रयास व्यस्थित रूप  से चलाये जाए जो उसके मानसिक विकास में लाभकारी है। 

प्रारम्भिक बाल्यवस्था देखभाल व षिक्षा इंसान के सर्वांगिण विकास की नींव है। बालक के 85 प्रतिषत दिमाग का विकास 6 वर्ष तक ही हो जाता है। ऐसे में अगर इस उम्र में सुनियोजित प्रयास नहीं किया गया तो बालक के दिमाग / मस्तिष्क का विकास उस स्तर का नहीं हो पाएगा जितना अच्छी परवरिष के साथ हो सकता था।  सवाल यह आता है कि वे कौनसे प्रयास है जिनसे बाल्यवस्था मानसिक व शारीरिक क्षमताएं उच्च स्तर  तक विकसित हो पाती है किन के अभाव में यह उस स्तर तक विकसित नहीं हो पाती है।

मनौविज्ञानिकों के शोध और हमारे अनुभव बताते है कि हम जिस अंग का ज्यादा उपयोग करते है उसकी क्षमताएं अन्य अंगों की तुलना में अधिक होती है। जिस तरह का चिंतन ज्यादा करते है उस तरह के चिंतन की क्षमता उस प्रक्रिया के दौहरान स्वतः ही बढ़ रही होती है। अतः बाल्यवस्था में उस तरह की गतिविधियां बच्चों के साथ करवाना जिनमें तर्क करना, विविध तरह के तार्किक खेल, पेटर्न बनाना व समझना, नई नई रचना करना, सृजन करना, चिंतन करना, सवाल उठाना, अभिव्यक्ति के अवसर लेना, वाद विवाद में हिस्सा लेना, चीजों को बनाना व बिगाड़ना, हर चीज को अपने हाथों से करने का प्रयास करना,  अन्य बच्चो के साथ मिलकर कार्य करने के अवसर पाना, परिवेष का अवलोकन करना और उन सवाल उठाना, कहानी सुनना व सुनाना, पहेलियां, चुटकले, नाटक करना, खेलना व उसके नियम बनाना एवं उनका पालन करना, चित्र बनाना, रंग भरना, मिट्टी के खिलौने बनाना, लकड़ी के खिलौने बनाना, कोलाज करना, कबाड़ से जुगाड़ वाली गतिविधियां करना आदि आदि तरह की प्रक्रिया में शामिल होने का अवसर जब बालक को मिलेगा तो उसकी मस्तिष्क की क्षमताएं स्वतः ही विकसित हो रही होती है। बालक अपने घर पर भी कुछ न कुछ कर रहा होता है पर स्कूल में जिस तरह के सायास प्रयास किये जाते है उनमें और घर पर अनायास किये जाने वाली प्रक्रिया में अंतर होता है। घर पर देख रहे टीवी और मोबाईल में बच्चे सिर्फ देख रहे होते है उस पर सवाल उठाये उससे पहले दूसरा चित्र सीन उसके सामने आ जाता है।ं अतः उसे दुनिया का एक्सपोजर तो होता है पर सोचने, तर्क व चिंतन के अवसर नहीं मिल पाते है। उसी तरह घर के अन्य कामों में बालक अपने हिसाब से करता जाता है उसने क्या सीखा या नहीं उसका आकलन नहीं किया जाता। वहां पर उसके सामने उस तरह की कुछ चुनौतीभरी परिस्थितियां लाने के लिए कोई नहीं होता है। और वह जिस तरह की प्रक्रिया से रोजाना शामिल होता उसी तरह का कार्य करता रहता है। जैेसे कि बालक अपने घर पर खेलता है तो उसके पास कुछ खिलौने भर हो सकते है। कुछ निष्चित गतिविधियां हो सकती है जिनमें वह शामिल रहता है जो कि उसके मानसिक विकास के लिए पर्याप्त एवं व्यवस्थित नहीं होती है। अतः नई षिक्षा निति में 3 वर्ष के बालक को प्रवेष देकर कक्षा 1 व 2 तक बुनियादी विकास का चरण जो रखा है वह बहुत ही सराहनीय कदम है। इस उम्र में विकसित क्षमताएं ,समझ,मुल्य, प्रवृति एवं रूझान बच्चे को उसकी आगे की पढ़ायी केा अच्छी बनाने में मददगार होंगी। 

अभी तक 0 से 6 वर्ष तक का बालक आंगनबाड़ी से जोड़ने का प्रयास था पर यह कार्य उतना व्यस्थित नहीं हो पा रहा था जिस तरह की अपेक्षा अब की जा रही है। आंगनबाड़ी में कार्यकत्र्ताओं की क्षमताएं एवं षिक्षण प्रक्रिया की समझ उस स्तर की नहीं होती है। पर अब सरकार को इस नई षिक्षा निति के तहत 3 वर्ष से 18 वर्ष तक की षिक्षा को समग्रता में देखना होगा। उसको समझना होगा कि आरम्भिक स्तर पर रहीं कमी आगे की षिक्षा को  प्रभावित कर रही होंगी।  साथ ही 6 वर्ष तक की उम्र जिसमें बालक का 85 प्रतिषत मस्तिष्क विकसित हो चुका होता है में बच्चों के साथ उस तरह की प्रक्रियाएं चल रही हांेगी जो उसके मानसिक, शारीरिक एवं भावनात्मक विकास में मदद कर रही होंगी तो बालक की मानसिक क्षमताएं उस  स्तर की स्वतः ही विकसित हो रही होंगी कि वह आगे की पढ़ाई का सहजता के साथ प्राप्त कर पाए। स्कूली षिक्षा में अभी तक एक समस्या संसाधनों की भी आ रही थी। एक प्राथमिक यानि 1 से 5 तक की कक्षाओं में 2 षिक्षक होते है।  एक षिक्षक कितनी क्षमताएं एवं दक्षताएं रखता है इसकी भी सीमाए होती है। ऐसे में बच्चे के साथ संगीत, कला, योग, आदि जैसे कौषलों पर कार्य नहंीं हो पाता है।  बालक में जो सर्वांगिण विकास की बात करते है पर हो नहीं पाता है। इस नहीं षिक्षा निति में स्कूल काॅम्पलेक्स की एक नई अवधारणा लायी गयी है। जिसमें 5 से 10 किमी के दायरे मे आने वाली प्राथमिक , उच्च प्राथमिक एवं माध्यमिक , उच्च माध्यमिक स्कूलों को मिलाकर एक स्कूल कॅाम्पलेक्स बनाया जाएगा । इसके माध्यम से उन विषेष कला व कौषलों वाले षिक्षकों की कमी की पूर्ति हो पाएगी। एक स्कूल काॅम्पलेक्स में एक कला का षिक्षक एक से अधिक स्कूलों में जा पाएगा। इसी तरह से व्यवसायिक षिक्षा का षिक्षक उस काॅमपलेक्स की एक से अधिक स्कूलों में जाकर बच्चो के साथ षिक्षण करवा रहा होगा।  इसी तरह शैक्षणिक संसाधनों का भी उपयोग किया जा रहा होगा जैसे कि माइक्रोस्कोप का उपयोग उस काॅम्पलेक्स की एक से अधिक स्कूलों में हो रहा होगा। कौन षिक्षक कब कहां जाएगा इसके संचालन के लिए स्कल काॅमपलेक्स की एक कमेठी बनायी जाएगी।  वह उसका संचालन करेगी।  कहने का मतलब यह है कि अलग अलग स्कूल के लिए जो स्ंासाधनेां की कमी है वह आगे जाकर दूर होने वाली है  एक बच्चे का विविध आयामों पर षिक्षण कार्य हो रहा होगा। 

इन सब प्रयासों से लग रहा है कि वे दिन दूर नहीं कि स्कूली षिक्षा में षिक्षा की गुणवत्ता को लेकर क्रातिकारी बदलाव हमें देखने के मिल रहे होंगे। यह बदलाव हमारे समाज को तो अच्छा बना ही रहे होंगे साथ ही राष्ट्र को भी विष्व पटल विषेष महत्व दिलाने में मदद कर रहे होंगे।

मुरलीधर गुर्जर                                      

   यह लेखक के स्वतंत्र विचार है।

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