बात 21वीं सदी की, नियम 19वीं सदी के!



देश की नई शिक्षा नीति भारत को 21वीं शताब्दी में ले जाने की बात कर रही है, जबकि उत्तराखंड के सरकारी विश्वविद्यालय अभी 19वीं शताब्दी में ही अटके हुए हैं। इन दिनों इसका सबसे बड़ा उदाहरण स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर विषय चयन के मामले में देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए श्रीदेव सुमन विश्वविद्यालय के प्रोस्पेक्टस में साफ-साफ लिखा है कि गणित विषय के साथ गृह विज्ञान की पढ़ाई नहीं होगी। इसी तरह से संस्कृत विषय के साथ मनोविज्ञान अथवा मानव विज्ञान का चयन नहीं किया जा सकता। यह स्थिति इसलिए परेशान करने वाली है क्योंकि नई शिक्षा नीति यह छूट देती है कि केमिस्ट्री पढ़ने वाला विद्यार्थी अपनी पसंद के अनुरूप इकोनॉमिक्स से लेकर राजनीति शास्त्र तक किसी भी विषय की पढ़ाई कर सकता है, लेकिन इस विश्वविद्यालय को (और सामान्य उपाधियों वाले अन्य विश्वविद्यालयों को भी) लगता है कि मानव विज्ञान विषय के साथ संगीत, चित्रकला, संस्कृत, दर्शन अथवा गृह विज्ञान विषय का चयन करने से कोई बड़ा अनर्थ हो जाएगा। 

इस तरह के बंधन के पीछे कौन सा आधार काम करता है, यह अब भी अदृश्य ही है। यदि अतीत में जाकर देखें तो अब से दशकों पहले आगरा विश्वविद्यालय में प्रवेश के जो नियम चलते थे, वे ही नियम मेरठ विश्वविद्यालय और गढ़वाल विश्वविद्यालय तक चले आए और फिर यहां से श्री देव सुमन विश्वविद्यालय तक पहुंच गए। (हालांकि अब चौधरी चरण सिंह विश्वविद्यालय, मेरठ में नई शिक्षा नीति को लागू कर दिया गया है इसलिए वहां विषय चयन में व्यापक उदारता दिखाई गई है)। विषय निर्धारण की इस यात्रा में अनेक सुनाम-धन्य विद्वानों ने इन नियमों पर अपनी सहमति और स्वीकृति प्रदान की होगी, लेकिन किसी ने यह सोचने की जहमत नहीं उठाई कि अर्थशास्त्र विषय के साथ संगीत, चित्रकला, मानव विज्ञान अथवा दर्शनशास्त्र पढ़ने से कोई बड़ा अनिष्ट होने वाला नहीं है। 

इस स्थिति के पीछे सामान्य तौर पर यह माना गया कि कुछ विषयों के पाठ्यक्रम अथवा आधार-सिद्धांतों में एकरूपता है इसलिए उनकी पढ़ाई एक साथ नहीं की जा सकती, लेकिन अब इसी बात को हिंदी और संस्कृत विषय के साथ जोड़कर देखें तो फिर इन दोनों की पढ़ाई भी एक साथ नहीं होनी चाहिए क्योंकि हिंदी विषय में चाहे भाषा विज्ञान की बात हो अथवा काव्यशास्त्र की, उसकी जड़े स्वतः ही संस्कृत के साथ जुड़ती हैं। 

इसी तरह से फिजिक्स और केमिस्ट्री तथा मैथ्स को भी एक साथ पढ़ाया जाना उचित नहीं होगा क्योंकि आधार-सिद्धांतों के मामले में यह भी एक दूसरे के साथ गहरे तक जुड़े हुए हैं।  इस यूनिवर्सिटी ने एक और बंधन लगाया हुआ है कि भूगोल पढ़ने वाले छात्र-छात्राएं संगीत, चित्रकला, इतिहास तथा मानव विज्ञान (एंथ्रोपोलॉजी) विषय का चयन नहीं कर सकते। बंदिशों की यह सूची यहीं पर खत्म नहीं होती। विश्वविद्यालय के प्रोस्पेक्टस को देखने से साफ पता लगता है कि भूगोल की पढ़ाई भी भूलोल के अतिरिक्त साइंस के उन्हीं विद्यार्थियों तक सीमित है जिन्होंने जीव विज्ञान वर्ग के साथ 12वीं पास की हो। इस तर्क को भी विश्वविद्यालय के विद्वान अधिकारी ही स्पष्ट कर सकते हैं कि स्नातक स्तर पर भूगोल विषय का चयन करने में जीव विज्ञान विषय किस तरह की आधारभूमि प्रदान करता है जो कि फिजिक्स अथवा केमिस्ट्री पढ़ने वाले विद्यार्थी के पास उपलब्ध नहीं होती। 

विश्वविद्यालय ने एक और रोक यह लगाई हुई है कि छात्र-छात्राएं एक साथ तीन भाषाओं का अध्ययन नहीं कर सकते, जबकि रोजगार की दृष्टि से देखें तो स्नातक स्तर पर जितनी अधिक भाषाएं पढ़ी होंगी, रोजगार की संभावना भी उतनी ही प्रबल होगी। उदाहरण के लिए यदि कोई विद्यार्थी स्नातक स्तर पर संस्कृत और अंग्रेजी के साथ कोई क्षेत्रीय भाषा पढ़ता है तो भाषा से संबंधित किसी भी क्षेत्र में उसे उन विद्यार्थियों की तुलना में ज्यादा आसानी से रोजगार मिल सकेगा, जिन्होंने एक अथवा दो भाषाएं पढ़ी हों। यहां यह भी गौरतलब है कि दुनिया के अनेक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय स्नातक स्तर पर भाषा की पढ़ाई के संदर्भ में ज्यादा उदार विकल्प उपलब्ध कराते हैं। केवल भाषा ही नहीं बल्कि मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई के साथ भी मानविकी और भाषा विषयों की पढ़ाई की जा सकती है, लेकिन हमारे यहां अभी यह व्यवस्था कल्पना से भी परे की बाद दिखाई देती है।

प्रवेश के संबंध में श्री देव सुमन विश्वविद्यालय में और भी कई रोचक नियम देखने को मिलते हैं, जो इससे पूर्व हेमवती नंदन बहुगुणा विश्वविद्यालय में भी लागू रहे हैं। रक्षा अध्ययन (डिफेंस स्टडीज)  विषय को विश्वविद्यालय ने ऐसा विषय मान लिया है, जिसे किसी भी विषय समूह के साथ पढ़ा जा सकता है, लेकिन यह सुविधा अन्य विषयों के मामले में नहीं है। रक्षा अध्ययन को ही ऐसा विषय क्यों माना गया, इसका कोई आधार मौजूद नहीं है। विश्वविद्यालय ने और भी कई विरोधाभासी बंधन लगाए हैं। जैसे, BA पास करके MA में आने वाले विद्यार्थी को उसी विषय में प्रवेश मिलेगा, जो उन्होंने स्नातक स्तर पर पढ़ा हो, लेकिन यदि कोई विद्यार्थी बीएससी अथवा बीकॉम करके MA में प्रवेश चाहता हो तो उसके लिए स्नातक स्तर के विषय का बंधन नहीं रखा गया है। क्या बीएससी अथवा बीकॉम करने से भर से ही कोई  विद्यार्थी MA मैं कोई भी विषय पढ़ने में सक्षम हो जाता है! इसका जवाब भी विश्वविद्यालय ही दे सकता है।

इसी तरह M.Ed उपाधि के सन्दर्भ में भी एक निरर्थक बंधन लगाया गया है कि इस उपाधि में केवल उन्हीं छात्र छात्राओं को प्रवेश दिया जाएगा, जिन्होंने 10वीं से लेकर B.Ed तक की सभी परीक्षाओं में कम से कम द्वितीय श्रेणी के अंक प्राप्त किए हों।  उल्लेखनीय बात यह है कि M.Ed की पढ़ाई करने वाले विद्यार्थी खुद को B.Ed कॉलेजों अथवा विश्वविद्यालयों में नौकरी के लिए तैयार कर रहे होते हैं। इन जगहों पर सहायक प्रोफेसर के पद पर नियुक्ति के लिए 10वीं और 12वीं के अंकों का कोई बंधन नहीं है। ऐसे में M.Ed में प्रवेश के लिए 10वीं 12वीं में द्वितीय श्रेणी होने की बाध्यता हास्यास्पद ही है। 

नई शिक्षा नीति कहती है कि कोई भी व्यक्ति किसी भी स्तर पर अपनी पढ़ाई को स्थगित करके बाद में अपनी सुविधा के अनुरूप पुनः पढ़ाई आरंभ कर सकता है, जबकि श्री देव सुमन विश्वविद्यालय की व्यवस्था कहती है कि यदि किसी विद्यार्थी की पढ़ाई में 2 वर्ष से अधिक का गैप है तो फिर उसे अगली कक्षा में प्रवेश नहीं दिया जाएगा। अब देश में नई शिक्षा नीति लागू होने के बाद यह उम्मीद की जा रही है कि विश्वविद्यालयों के प्रवेश संबंधी हास्यास्पद नियमों से भी मुक्ति मिल जाएगी, लेकिन तब तक विद्यार्थियों को इन्हीं नियमों की बंदिशों के भीतर पढ़ाई करनी होगी।

सुशील उपाध्याय

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